Friday, January 22, 2016

उड़ान

सुबह हुई ही है, सूरज उग रहा है।
यहां अलार्म की बीप से सारा घर गूँज रहा है।
अब दिनभर वही रोज़मर्रा की भाग-दौड़।
वही जद्दोजेहद। वही घर की बाग़-डोर।

बहुत चल लिए ज़िन्दगी में,
कुछ और करने को जी चाहता है।
सब छोड़ कर बस,
उड़ने को जी चाहता है।


शर्माजी का मकान।
पास की दुकान के पकवान।
सब चीज़ों की चाह तले,
ये तन घिसा चला जा रहा है।
इन आशाओं के बोझ तले,
ये दिल पिसा चला जा रहा है।

दौड़ भाग बहुत हो गई।
अब बस रुकने को जी चाहता है।
आशाओं के बंधन से मुक्त अब,
उड़ने को जी चाहता है।


जाति-धर्म के झगड़ों में,
बेक़सूर सूली चढ़ रहा है।
कुछ-एक की लालच और ताकत के नीचे दबकर,
कमज़ोर जान गँवा रहा है।

बहुत बन्ध लिए इन जाति-धर्म की ज़ंजीरों में।
इन्हें तोड़ कर खुल जाने को जी चाहता है।
सब भेदभाव हटा, फिर से एक होने को जी चाहता है।
ये सब बेमतलब के बोझ हलके कर अब बस...
उड़ने को जी चाहता है।
उड़ने को जी चाहता है।

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